गांव पिछड़ा क्यों है.. ?

किसी को अगर भारत को जानना है तो उसे सबसे पहले हमारे देश के गांवों में जाना चाहिए क्योंकि इस देश का दिल गांव में ही धड़कता है। प्रकृति ने अपना सर्वश्रेष्ठ गांवों में ही उड़ेला है।
सुबह पंच्छियों की चहचहाट से जागता जीवन, पशुओं के गले की घंटियों की आवाजों से आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ती जिंदगी, खाने की पोटली बांधे अपने खेतों की ओर जाते किसान, घरों में दही बिलोकर मख्खन – मठ्ठा बनाती औरतें और स्कूल जाने की तैयारी करते बच्चे.. यह सब अगर हम टीवी के स्क्रीन पर देखकर देश के किसी गांव की कल्पना करें तो ऐसा लगेगा जैसे कि धरती का सबसे सुखमय जीवन हमारे गांवों में ही होता होगा।..लेकिन यह अधूरा सच है? अगर हमारे गांवों में ही स्वर्ग बसता तो फिर इतनी बड़ी तादाद में लोग शहरों की ओर क्यों भागते ?
हां, यह सच है कि किसी समय सचमुच भारत के गांव में स्वर्ग जैसी सुंदर जिंदगी हुआ करती थी। जब से इंसान में पैसों का लालच बढ़ा है और उसने रिश्तों को धन की कसौटी पर आंकना शुरू किया है, यह स्वर्ग बड़ी तेजी से नर्क बनता जा रहा है।

ग्रामीण जीवन के हम दूसरे पहलू को देखें तो हमें कड़ी मेहनत करके भूखे पेट सोता किसान व मजदूर नजर आएगा, जरा से कर्ज के लिए जीवनभर महाजन को सूद भरता फटेहाल गरीब दिखाई देगा या फिर जानवरों की तरह काम लेकर आधे पेट खाना देकर मजदूरी कराते कथित जागीरदारों के दर्शन होंगे। सिक्के के इन दोनों पहलुओं के होने के बावजूद कुछ लोग हैं जो यहां भी जीवन को अपनी शर्तों पर चलाने की कोशि करते हैं। अपनी इस जमीन से दिल और आत्मा से जुड़े होने के कारण उनके लिए उनका अपना गांव ही उनका संसार है। वो न सिर्फ अपने गांव से बेहद लगाव और प्यार करते हैं बल्कि उसके विकास के लिए बड़ी-बड़ी कल्पनाएं भी करते हैं।.. लेकिन बावजूद इसके आज हमारे अधिकांश गांव इतने पिछड़े क्यों हैं? इस कड़वी सच्चाई के पीछे की हकीकत से मुंह मोड़े आज की नई पीढ़ी पैसों के पीछे दौड़ती हुई एक ऐसे अंधे मार्ग की ओर बढ़ रही है, जहां गांव का विकास बहुत पीछे छूट जाता है।
अपने बच्चों को संस्कार और मर्यादाओं में कैसे रखना है, इसकी पहल आपको ही करनी होगी। इसके बिना आप अपने बच्चों को गलत सोच और गलत रास्ते पर जाने से नहीं रोक सकते। अगर आप अपने गांव के लोगों, समाज, माता-पिता, बुजुर्गों से प्यार करेंगे तब ही आपके बच्चे इस नेक रास्ते पर चलेंगे।

अनेक प्रकार की तकलीफें सहता गांव का आदमी हमेशा अपनी मिट्टी से जुड़ा रहना चाहता है। लेकिन हर किसी के हालात एक जैसे नहीं होते। जब किसी परिवार में मुसीबतें बढ़ती हैं तो घर के किसी सदस्य को चाहे अनचाहे रोजी-रोटी के जुगाड़ में गांव छोड़कर शहर जाना पड़ता है। तब घर का कोई सदस्य अपने घर, खेतों व परिवार की जिम्मेदारी अपने भाइयों या पिता के भरोसे छोड़ रोजगार की तलाश में दूर किसी बड़े शहर में जाने की जोखिम उठाता है। ज्यादातर मामलों में उन शहरों में उनका कोई नजदीकी या सगा संबंधी नहीं होता जो शुरूआती कठिन समय में उसे सहारा दे सके या काम ढूंढने या पाने में उसकी मदद कर सके। यह अनुभव एक नया जीवन तलाशने के लिए अंधियारे रास्ते पर चलने की एक ऐसी कोशिश होती है जिसका दूसरा छोर कहां खत्म होगा उसे पता नहीं होता। उसे वहां सड़कों, फुटपाथों पर सोकर कई रातें गुजारनी पड़ सकता है और इसके बावजूद मीलों चलकर काम तलाशना पड़ सकता है और इसके बावजूद भी जरूरी नहीं है कि उसे उसकी सही मंजिल मिल पाए।
शहर की कष्टभरी भाग दौड़ भरी जिंदगी में खुशकिस्मती से अगर कोई काम मिल जाता है तो उसे बरकरार रखने, मालिक या प्रबंधकों पर अपना विश्वास जमाने के साथ-साथ उसे अपने रहने-खाने की उचित जगह तलाशने और उसे कायम रखने के लिए बेहद कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। जब वह शहर में अपना पेट पालने के लिए कड़ा परिश्रम कर रहा होता है तो गांव में कई भूखे पेट लोग इस आस में जी रहे होते हैं कि उनके परिवार का वह बंदा शहर से कमाई करके कुछ पैसे बचाकर उनके पास भी भेजेगा जिसका वादा करके वो गांव से गया था। कुछ समय बाद वो अवसर भी आता है जब शहर में अपना पेट काटकर जमा की गई एक छोटी सी राशि वह गांव में अपने परिवार को भेजता है। तब घरवालों की उम्मीदें उससे और अधिक बढ़ जाती हैं और शहर में जी तोड़ मेहनत करके अधिक से अधिक पैसा कमाना ही उसका लक्ष्य हो जाता है, वह जाने अनजाने में कब पैसे कमाने की अंधी दौड़ में शामिल हो गया उसे खुद ही पता नहीं चलता। जब कभी वह गांव लौटता है तो कैसे भी करके अपने घर के हर सदस्य के लिए कोई न कोई चीज (तोहफा ) अवश्य लेकर आता है, जिसे देखकर उसके घरवाले बहुत प्रसन्न होते हैं लेकिन शहर में हाड़ तोड़कर कमाने वाले का जी ही जानता है कि उसने यह सब कैसे किया है।

गांव में परिवार के लोग यह समझते हैं कि शहर में काम करने से कमाई खूब होती है, तब वे अपने घर के दूसरे सदस्य को भी शहर ले जाने का दबाव पहले सदस्य पर डालते हैं। वह भी यह सोचता है कि अगर वह घर के किसी दूसरे सदस्य ( जो भाई, चाचा या कोई भी अन्य रिश्तेदार हो सकता है) को शहर ले जाकर काम दिलवाने में कामयाब हो गया तो उसका अपना भार कुछ हल्का हो जाएगा।
तब कई बार यह समस्या आ जाती है कि अगर घर का दूसरा सदस्य भी शहर चला गया तो उनकी जमीन जायदाद और माता-पिता आदि की देखभाल कौन करेगा। ऐसे मौकों पर आम तौर पर घर के उस सदस्य या भाई को यह जिम्मेदारी सौंप दी जाती है जो ज्यादा सहनशील है या कम बोलता है। शहर जाने वाले उसके संबंधी जाते समय उससे वादा करते हैं कि वे हर तरह से उसके हितों का खयाल रखेंगे और अपने से बढ़कर उसे मानेंगे। अपने सगों के वादों से उम्मीद लगाए गांव में जब गांव में रह रहे बच्चों की शादी का वक्त आता है तो शहरवासी अपनी जिम्मेदारियों, कर्तव्यों और वादों में से किसी पर भी पूरी तरह खरे नहीं उतरते। केसी तरह उनकी शादियां तो हो जाती हैं लेकिन र और जमीन जायदाद की जिम्मेदारी में पिसता घर नौजवान अपनी पढ़ाई, करियर, उन्नति को दांव पर लगाकर किसी तरह अपना जीवन जी रहा होता है। वह अब घर के दो सदस्यों के शहर पहुंचने से गांव में रह रहे उसके परिवार की आर्थिक हालत में कुछ सुधार होने लगता है तो मां-बाप को अपने लड़के- लड़कियों की शादी की चिंता सताने लगती है और अपनी इस जिम्मेदारी को जल्द से जल्द निपटाकर वे चैन का जीवन जीने की कल्पना करने लगते हैं। जब उनके बच्चों की शादियां हो जाती हैं तो उनका परिवार भी बढ़ने लगता है और इसी के साथ उनके घर के खर्चे भी बढ़ जाते हैं। तब शहर में रहने वाले सदस्य गांव में पैसा भेजना कम कर देते हैं और कई मामलों में वे पूरी तरह से अपने घरवालों की मदद करना बंद कर देते हैं। ऐसी स्थिति में गांव में परिवार व अन्य तरह की जिम्मेदारियां होती हैं वे अचानक से बेहद बढ़ जाती हैं। ऐसी स्थिति में गांव में रहने वाले सदस्य अक्सर बदहाली की जिंदगी जीने पर मजबूर हो जाते हैं। शहर में रहने वाले उनके घर के सदस्यों का भी तब गांव में आना जाना कम हो जाता है। अब उनकी मुलाकातें भी परिवार में किसी की शादी या उत्सव के समय ही हो पाती है।
शहर में पले-बढ़े उनके बच्चे गांव में आना पसंद नहीं करते, उन्हें गांव में हर तरफ गंदगी व असुविधाएं ही नजर आती हैं। हद तो तब हो जाती है जब इसी गांव में पले-बढ़े उनके मां-बाप भी अपने बच्चों की शिकायतों में हां में हां मिलाते नजर आते हैं और उन्हें भी अब अपने गांव और मिट्टी में खामियां नजर आने लगती हैं।
गांव में किसी शादी य समारोह में शहर में बसे सदस्यों का आना होता है तो वे हर लेन-देन, उपहार, व्यवहार में अपने बच्चों और गांव में मजबूरी में रह रहे अपने भाई के बच्चों में दो भांत करते हैं। वे कभी भी गांव वाले भाई के परिवार के साथ वैसा व्यवहार नहीं करते जैसा कि वे अपने बच्चों के साथ करते हैं। हर महगी चीजें वो अपने बच्चों के लिए खरीदने को लालायित रहते हैं लेकिन गांव में रह रहे बच्चों के लिए वे बेहद जरूरी चीजें खरीदने में भी हिचकिचाते हैं यह मंजर देखकर उन बच्चों के पिता पर क्या बीतती होगी जिसे उन्होंने गांव छोड़ते वक्त उसकी परेशानी को अपने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मानने की बात कही थी।
उसकी खामोशी अब उसकी लाचारी बनकर उसे मन मसोसकर जीने पर मजबूर कर रही होती है। जब उनके बच्चे भी बड़े हो जाते हैं तो इन परिवारों के जीवन स्तर का फर्क और भी अधिक बढ़ जाता है। शहर में रहकर पले-बढ़े बच्चे ऊंची शिक्षा लेकर अच्छी नौकरियां या बिजनेस कर रहे होते हैं और गांव में रहने वाले के बच्चे सरकारी स्कूलों से थोड़ी- बहुत पढ़ाई करके अपने पिता के साथ खेती में हाथ बंटा रहे होते हैं। जब शहर में रह रहे बच्चों की शादियां होती हैं तो उनके मां-बाप बड़ी धूम-धाम से भव्य शादी समारोहों का आयोजन करते हैं और जब गांव मं रह रहे बच्चों की शादी का वक्त आता है तो शहरवासी अपनी जिम्मेदारियों, कर्तव्यों और वादों में से किसी पर भी पूरी तरह खरे नहीं उतरते।
किसी तरह उनकी शादियां तो हो जाती हैं लेकिन उनके कार्यक्रमों के बीच जमीन आसमान का फर्क गांव में हर किसी को साफ नजर आता है और लोग गांव वाले भाई को ताने भी देते हैं। तब वह अपने उन दिनों की याद कर रोता है, जब उनके सभी भाई बंधु गरीबी की हालत में भी बड़े प्यार और अपनेपन के साथ मिलजुल कर रहा करते थे और आज शहर वाले भाई पैसे वाले बनकर सगे होकर भी कितने पराए हो गए हैं। ऐसी स्थिति में गांव का आदमी शहर जाकर तरक्की कर सकता है लेकिन उनका गांव कभी तरक्की नहीं कर सकता ?

जन्मभूमि से कर्मभूमि की इस महायात्रा में लोग अपने वादों, जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को भुला देते हैं। स्वयं को सुविधाजनक व सुरक्षित स्थिति में पहुंचाकर इन जरूरी बातों से मुंह मोड़ लेना इंसान के स्वार्थ और मतलबीपन को दर्शाता है। कोई व्यक्ति जरा भी अपने उन बुरे दिनों के बारे में सोचे जब गांव की बदहाली से तंग आकर एक बेसहारा किसी अनजान शहर में काम की तलाश आया था तो उसे किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा था, ऐसी मुसीबतें और परेशानियां भविष्य में गांव से शहर आने वाले किसी और व्यक्ति को न भुगतनी पड़ें इसकी व्यवस्था अगर वह कर सके तो वह अपने गांव एवं समाज दोनों पर बड़ा उपकार करेगा। उसे गांव में रह गए अपने भाई-बंधुओं के परिवार की जिम्मेदारियों को भी उसी तरह समझना होगा जिस तरह वह शहर में अपने परिवार की देखभाल करता है, क्योंकि अगर गांव में रहकर अगर वे अपने करियर को दांव पर लगाकर उसके परिवार व जमीन-जायदाद व समाज की देखभाल नहीं करते तो वह शहर में आने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाता और आज सफलता के इस मुकाम पर नहीं होता ?
आज आप शिक्षा, धन से संपन्न हो गए हैं और सरकारी कार्य कराने एवं कंप्यूटर के जानकर हो गए हैं तो इसका फायदा आप गांव के विकास के लिए शहर में बैठकर भी लोगों तक पहुंच भी कितने पराए हो गए हैं। ऐसी स्थिति में गांव का आदमी शहर जाकर तरक्की कर सकता है लेकिन उनका गांव कभी तरक्की नहीं कर सकता ?
आज आप शिक्षा, धन से संपन्न हो गए हैं और सरकारी कार्य कराने एवं कंप्यूटर के जानकर हो गए हैं तो इसका फायदा आप गांव के विकास के लिए शहर में बैठकर भी लोगों तक पहुंच सकते हैं। आप चाहें कितने भी व्यस्त क्यों न हों लेकिन अपने बच्चों को संस्कार और मर्यादाओं में कैसे रखना है, इसकी पहल आपको ही करनी होगी। इसके बिना आप अपने बच्चों को गलत सोच और गलत रास्ते पर जाने से नहीं रोक सकते। अगर आप अपने गांव के लोगों, समाज, माता-पिता, बुजुर्गों से प्यार करेंगे तब ही आपके बच्चे इस नेक रास्ते पर चलेंगे। हम युवाओं को जो रास्ता दिखाएंगे उतनी ही अपेक्षा हमें उनसे रखनी चाहिए। आपको अपने गांव के विकास के बारे में अवश्य सोचना होगा क्योंकि मातृभूमि के प्रति आपके कुछ कर्तव्य हैं जो बड़ी आस से आपकी और देख रही है।